साहिबा !
उन होंटों में ऐसा नशा नहीं है
कि हम डगमगा जाए
नशा , तो दिल के टूटने से होता है
बिखर के समेटने में होता है
रूह काँप उठती है
होश गुम जाता है
और, हंसी अश्क़ में ढल जाती है!
ये , नशा नहीं तो और क्या है ?
Copyright @ Ajay Pai 2016
Image courtesy : AJ's personal archive
poem
0 comments:
Post a Comment