दोपहर के तीन बजे थे
और छत पे था कोई खटखटाता
देखा तो थी बूँदें बारिश की
टिप टिप सी कूद रही थी
असमय आनेवाली ये बरसात
ले गयी मुझे वापस मेरे बचपन की गलियों में
नफरत है मुझे इन बेरंग बूंदों से
याद दिलाती है ये मुझे टूटी हुई छत की
और सीली सीली सी दीवारों की
जो सूज गई थी गरीबी की कहर से
कभी बिमारी ले आती थी अपने साथ ये
या कभी भूखापेट सुलाकर -
चली जाती थी दबे पाँव
बिजली जब कौंध जाती थी
सहम के छुप जाता था में
माँ के फटे हुए आँचल में
खुद को बचाते उन काले राक्षसों से
आज ये बारिश की बूँदें फिर ताज़ा
कर गई वो यादें, पर आज तो अफ़सोस ये है की
न रही माँ और न उसका आँचल |
Copyright @ Ajay Pai 26th June 2017
Image courtesy: Pexels
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